पहाड़ की घाटी में एक बुढ़िया ब्राह्मणी रहा करती थी।
पहाड़ पर स्थित मन्दिर में दर्शन करने जाने वालों के लिए
वह खाना बना दिया करती थी।
वह खाना बना दिया करती थी।
चूंकि आसपास और कोई गाँव न था इसलिए भक्त जन वहीं
भोजन करते थे। इससे होने वाली आमदनी से बुढ़िया का
काम चल जाता था। बुढ़िया मर गई तो एक चमारी ने
सोचा कि क्यों न मैं बुढ़िया का स्थान ले ? अच्छी आय
के साथसाथ सम्मान भी मिलेगा।
भोजन करते थे। इससे होने वाली आमदनी से बुढ़िया का
काम चल जाता था। बुढ़िया मर गई तो एक चमारी ने
सोचा कि क्यों न मैं बुढ़िया का स्थान ले ? अच्छी आय
के साथसाथ सम्मान भी मिलेगा।
ऐसा विचारकर वह बुढ़िया की झोपड़ी में रहने लगी और यात्रियों के लिए
भोजन बनाने लगी। एक दिन दो दर्शनार्थी आये तो उनके
लिए उसने काचरों का साग और रोटियां बनाई।
यात्रियों ने सराहना करते हुए कहा कि ब्राह्मणी
"माई ! तू ने साग तो बहुत ही स्वादिष्ट बनाया है, पहले
वाली बुढ़िया ऐसा साग नहीं बना सकती थी।"
भोजन बनाने लगी। एक दिन दो दर्शनार्थी आये तो उनके
लिए उसने काचरों का साग और रोटियां बनाई।
यात्रियों ने सराहना करते हुए कहा कि ब्राह्मणी
"माई ! तू ने साग तो बहुत ही स्वादिष्ट बनाया है, पहले
वाली बुढ़िया ऐसा साग नहीं बना सकती थी।"
तब उसनेबड़ी शान के साथ कहा कि
"आज मुझे मेरी रॉपी (चमारों
का एक औजार) नहीं मिली इसलिये काचरों को दाँत से
काटकर साग बनाना पड़ा अन्यथा मैं और भी अधिक
स्वादिष्ट साग बनाती। "
का एक औजार) नहीं मिली इसलिये काचरों को दाँत से
काटकर साग बनाना पड़ा अन्यथा मैं और भी अधिक
स्वादिष्ट साग बनाती। "
उसकी बात सुनकर यात्री सन्न रह
गये और उन्हें निश्चय हो गया कि औरत ब्राह्मणी नहीं
चमारी ही है।
गये और उन्हें निश्चय हो गया कि औरत ब्राह्मणी नहीं
चमारी ही है।
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