सच्चा मन (उत्तर प्रदेश की लोक कथा )

क बाल ग्वाल रोजाना अपनी गायों को जंगल में नदी किनारे चराने के लिए ले जाता था । 
                            जंगल में वह नित्य - प्रतिदिन एक संत के यौगिक क्रियाकलाप देखता था । संत आंखें और नाक बंद कर कुछ यौगिक क्रियाएं करते थे । ग्वाला संत के क्रियाकलाप बड़े गौर से देखता था । एक दिन उससे रहा नहीं गया । उत्सुकतावश उसने संत से यौगिक क्रियाओं के बारे में पूछ लिया ।
बाल ग्वाल के सवाल पर संत ने जवाब दिया कि वह इस तरह से भगवान से साक्षात्कार करते हैं । संत के प्रस्थान करने के बाद ग्वाला भी यौगिक क्रियाओं को दोहराने लगा और इस बात का ले लिया संकल्प कि आज वह भगवान के दर्शन  साक्षात करके ही रहेगा । ग्वाले ने अपनी दोनों आंखें ' बंद कर लीं और नाक को जोर से दबा लिया । श्वास प्रवाह बंद होने ' का से उसके प्राण निकलने की नौबत आ गई उधर कैलाश पर्वत पर महादेव का आसन डोलने लगा ।

 शिव ने देखा कि एक बाल ग्वाल उनसे साक्षात्कार करने के लिए कठोर तप कर रहा है । उसके हठ को देखकर शिव प्रगट हुए और बोले वत्स मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं और तुमको दर्शन देने आया हूं । ग्वाले ने बंद आंखों से इशारा कर पूछा , ' आप कौन हो ? ' भोलेनाथ ने कहा ‘ मैं बही भगवान हूं , जिसके लिए तुम इतना कठोर तप कर रहे हो । ' ग्वाले ने आंखें खोलीं और सबसे पहले एक रस्सी लेकर आया । चूंकि उसने कभी भगवान को देखा नहीं था , इसलिए उसके सामने पहचान का संकट खड़ा हो गया को पेड़ के साथ । उसने भगवान  रस्सी से बांध दिया और साधु को बुलाने के लिए भागकर गया । संत तुरंत उसकी बातों पर यकीन करते हुए दौड़े हुए आये लेकिन संत को  कहीं पर भी भगवान नजर नहीं आए संत ने बाल ग्वाल से कहा - मुझे तो कहीं नहीं दिख रहे । '
तब ग्वाले ने भगवान से पूछा प्रभु , आप यदि सही में भगवान हो तो साधु महाराज को दिख क्यों नहीं रहे हो । " तब भगवान ने कहा - ' जो भक्त छल कपट रहित , सच्चे मन से मुझे याद करता है , मैं उसको दर्शन देने के लिए दौड़ा चला आता हूं । तुमने निश्छल मन से मेरी आराधना की , अपने प्राण दांव पर लगाए और मेरे दर्शन का दृढ़ संकल्प लिया इसलिए मुझे कैलाश से मृत्युलोक में तुमको दर्शन देने के लिए आना ही पड़ा । जबकि साधु 


 के आचरण में इन सभी बातों का अभी अभाव है । वह रोजाना के क्रियाकलाप करते लेकिन उनके , मन में अभी भटकाव है । इसलिए मैं तुमको तो दिखाई दे रहा हूं , लेकिन संत को नहीं । '

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