यह भी नहीं रहेगा (अरब की लोककथा )

क फकीर हज के लिए निकला रात होने पर वह एक गांव में रहने वाले शाकिर के यहां रुका ।
शाकिर ने फकीर की सेवा की । जाते समय फकीर को उपहार भी दिए । फकीर ने शाकिर के लिए दुआ की 
, ‘ खुदा करे तू खूब आगे बढ़े । 
शाकिर हंस पड़ा और बोला - 
' , फकीर ! जो है यह भी नहीं रहने वाला । 
फकीर वहां से चला गया । दो वर्ष बाद फकीर फिर आया । शाकिर का सारा वैभव समाप्त हो चुका था । वह एक जमींदार के यहां नौकरी कर रहा था । शाकिर ने फकीर की अपनी हैसियत के अनुसार सेवा की ।
झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया । खाने के लिए सूखी रोटी दी । 
जाते समय फकीर दुखी होकर बोला - 
‘ हे खुदा ! ये तूने क्या किया ? ' 
शाकिर फिर हंसकर बोला - 
फकीर तू क्यों दुखी हो रहा है ? हमें हर हाल में खुश रहना चाहिए । समय बदलता रहता है । और सुनो ! यह भी नहीं रहने वाला । '
 फकीर सोचने लगा कि मैं तो केवल भेष से फकीर हूं । सच्चा फकीर तो यही है । दो वर्ष बाद फकीर फिर आया । शाकिर से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि शाकिर तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है । मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहां शाकिर नौकरी करता था , उसके कोई संतान नहीं थी । मरते समय वह सारी जायदाद शाकिर को दे गया । 
फकीर ने शाकिर से कहा - ' वो दुख की घड़ी गुजर गयी । खुदा करे अब कोई मुसीबत न आए । ' 
यह सुनकर शाकिर फिर हंस पड़ा । कहने लगा ‘ फकीर ! अभी भी तेरी नादानी बनी हुई है । यह भी नहीं रहने वाला । फकीर वहां से चला गया । फकीर करीब डेढ़ साल बाद आया तो देखता है कि शाकिर का महल वीरान पड़ा है । शाकिर जा चुका है । फकीर सोचने लगा , ' यहां कुछ भी टिकने वाला नहीं है दुख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता ।

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